उम्मीद की गेंद..
(Part 1)
6 बार माँ की डांट खाने के बाद अनमने से उसने रोटी को गोल घुमा के चाय के गिलास में डुबोया और फटाफट आधा निवाला मुह में भरकर सरपट भागते हुए गाँव की टेढ़ी मेढ़ी गलियों में ओझिल हो गया, और कुछ देर बाद नज़र आया गाँव की तलहटी में बसे प्राइमरी स्कूल की बाउंड्री पर..गर्मियों के वो 2 महीने एक छोटे खूबसूरत शहर से महज दो ढाई घंटे की दूरी पे बसे इस गाँव के लिए किसी त्यौहार से कम न होते थे.. गाँव से बाहर नौकरी करने वाले और शहर में अपने बच्चों को पढ़ाने की हैसियत रखने वाले परिवार रौनक लेकर गरिमयों में छुट्टियाँ बिताने गाँव आया करतेे थे.. बाहर पढने वाले बच्चों की पूरे गाँव में एक अलग ही धाक होती थी.. शहर के तौर तरीके और कसबे नुमा शहर की रंगीन और एडवांस लाइफ के किस्से गाँव में रहने वाले बच्चों के लिए मदहोश सपनों से कम न थे..
ऐसे ही गर्मियों की एक आवारा शाम दीपू हमेशा के जैसे स्कूल के बाउंड्री पे जा बैठा जहाँ गाँव के सभी बच्चे क्रिकेट खेलने जमा हुआ करते थे.. गाँव की क्रिकेट के अपने अलग ही नियम और कायदे हुआ करते हैं, पर एक सबसे बड़ा कायदा होता था कि खेल में वही शामिल हो पाता जिसके पास या तो ball हो या bat हो.. NRV बच्चे (non residential villagers) इस दायरे से बाहर थे.. और टीम चुनने का हक भी शहरियों को ही होता.. गाँव के जो बच्चे इनकी टीम में चुन लिए जाते वो खुद को एक विशेष सम्मान मिलने जैसी फीलिंग्स के साथ खेल में अपनी जी जान लगा दिया करते.. अगर बैट और बॉल से कुछ कमाल न कर पाए तो फील्डिंग में अपने कपड़े फडवा देते नही तो हाथ पैर तो छिलवा ही देते .. गाँव के अभागे बच्चे जो खेल में कायदों के अंतर्गत शामिल ना हो पाते वो बाउंड्री पर बैठ दर्शक दीर्घा की उत्तम परिभाषा बनकर खेल देखा करते.. ball अक्सर बाउंड्री के बाहर नीचे नदी और झाड़ियों की तरफ जाती तो ये बाउंड्री पे तैनात एक रक्षक की भूमिका निभाते हुए गेंद की तरफ ऐसे लपकते मानो अरसों से भूखे एक शेर के सामने ताजा गोश्त परोस दिया गया हो..इसी उम्मीद में की शायद मेरी इस dedication का फल मुझे खेल में शामिल होने के रूप में मिले.. दीपू भी इन्ही में से एक था जो बाउंड्री से बाहर की गेंद को लपक लेने को बेताब रहता था..उसके कपड़ों में लगे अस्तर और कुतरन इस बात की गवाही देने के लिए भरपूर थे.. और कभी कभी हाथ पैरों पे खरोंचों के निशान उसका समर्पण बयां किया करतेे.. दीपू बाहर से गेंद को लेके आता और चेहरे पर इक संतोषजनक जीत के भाव के साथ गेंद वापस फेंकते समय पूरी कोशिश करता की गेंद किसी खिलाडी के हाथ में सीधे चली जाए..गेंद इधर उधर गिरती तो वो शर्मिंदा हो उठता..
11 साल का दीपू शायद गीता का सार रट के ही पैदा हुआ था की करम करते जाओ फल की आस के बिना..
फल बाउंड्री के अन्दर था और उसके करम बाहर झाड़ियों में..
फील्ड से महज कुछ ही दूरी पर बहुत बड़ा एक झाड था और झाड़ के ठीक नीचे सर्पाकार सायं सायं बहती नदी जो इन मासूमों और इनके जैसे अब नौजवान हो चुके कई मासूमों की गेंदें लील चुके थे ||.. बाएं हाथ के बल्लेबाज को ये झाड़ कई बार अपनी तरफ लुभाता और गेंद खो जाने की डर से मजबूरन बाएं हाथ के लारा को भी दायें हाथ से सचिन बन के बैटिंग करनी पड़ती.. झाड में गेंद का गिरना मानो एक घोषणा कि आज का खेल ख़तम और गाँव के किसी एक घर में पापा को नई गेंद के लिए मनाने का सिलसिला जारी..
रोज की तरह आज भी अँधेरा होने पे बच्चों ने फील्ड में धूल उड़ा कर खेल ख़तम करने का ऐलान किया और टोली बना कर घरों की ओर चल दिए..दीपू अपनी बाउंड्री रक्षक टोली के साथ खिलाड़ी टोली का अनुगामी बन कर पीछे पीछे एक सच्चे सेवक की तरह कल की आस लगाये चल दिया..
काश कि उसके पास भी एक बैट और बॉल होती..बैट उसके पास था लेकिन छोटी कुल्हाड़ी से छिल के बनाया हुआ मुंगरा और बॉल के नाम पे पुराने अंगूठे वाले जुराब के अन्दर ढेरों कुतरन और अखबार भर के सिला हुआ एक इलिप्स.. कई बार रो रो के बॉल के लिए जिद कर चुका दीपू अब भूल चूका था कि जिद भी कम कीमती नही होती..जिद की कीमत भुला चुका दीपू जिद करना भी भूल चुका था..और इसमें उसके बाबा का सबसे अधिक योगदान था जो गाँव के उपर सड़क पर के छोटे बाजार में पेड़ के नीचे एक बड़ा सा शीशा लगाके लोगों के बाल काटने का हुनर फरमाते थे.. हुनर भी क्या गजब कि आजतक जितने लोगों के बाल न काटे थे उससे जादा कान काट चुके थे और किसी की गर्दन पर उस्तरे का कटा दिख जाए तो गौरतलब था की मनोहर के हुनर की मुहर पड़ी है...
To be continued...
(Alok Painuly)
Marvelous
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Deleteबेहतरीन...कसी हुई भाषा, गंवई शब्दों की भरमार, मन मोह लेने वाली शैली। शुभकामनाएं।
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद स्नेहिल भाई... एक परिपक्व लेखक द्वारा मिली सराहना निश्चित ही मनोबल को बढ़ावा देती है.. सप्रेम धन्यवाद ।।
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