उम्मीद की गेंद..
(Part 4):
मेल मिलाप और राजी ख़ुशी जान लेने के बाद बुआ ने मुस्कुराते हुए मिठाई का डिब्बा माँ के हाथ में थमा दिया....
"अरे.....इसकी क्या जरुरत थी ...क्यूँ करती है ये सब फालतू के खर्चे तू..." माँ एक अनचाही नाराजगी की पोलिश वाली ख़ुशी चेहरे पे लाती हुए बोली और डिब्बा थामके रसोई की ओर चाय पानी की व्यवस्था करने चल पड़ी...
माँ के पीछे पीछे दीपू और छोटी बहन भी तेज दौड़ते हुए रसोई जा पहुंचे...डिब्बे में बंद मिठाइयों का मोह बालमन में पनप रहे लालच की बेसब्री को धीरे धीरे अब सुलगाने लगी थी...
कब डिब्बा खुलेगा और कब उनके मुह की स्वाद ग्रंथियों को काम करने का मौका मिलेगा, बस इसी जद्दोजहद में दीपू और छोटी दोनों रसोई में चाय के उबलने और प्लेट में मिठाई सजने के इंतज़ार में रेंगने लगे..
थोड़ी देर बाद दीपू और छोटी बहन एक हाथ में अपने अपने चाय के गिलास और दूसरे हाथ में लड्डू लिए बुआ वाले कमरे में आ पहुंचे...उनके पीछे पीछे माँ एक थाली में 3 गिलास और डब्बे में आई सभी प्रकार की मिठाइयों से सैंपल की तरह हर प्रकार की मिठाई का एक एक पीस प्लेट में सजा आ पहुंची...
इसे गाँव की परम्परा कहें या लाचारी पर मेहमान का स्वागत अक्सर मेहमान की लायी हुयी मिठाई, फल या बिस्कुट नमकीन से ही होता है...
दीपू और छोटी बहन में बस यही होड़ थी कि हाथ और मुह की मिठाई झट से ख़तम कर प्लेट से दूसरी मिठाई का भोग लगाया जाय....
लड्डू को झट से निगलने के चक्कर में दोनों बीच बीच में गरम चाय से अपना मुह जला कर प्लेट में पड़ी मिठाई पर अपना हक़ और नीयत जता रहे थे..
आलू के आकार की बालूशाही पर दोनों की बराबर नजर थी....बुआ के बगल में बैठने पर यक़ीनन फायदा देख दोनों बुआ के बगल में बैठ गये..
बुआ ने भी बड़ा दिल दिखाते हुए बड़े लाड़ से बालूशाही के दो लगभग बराबर हिस्से कर दोनों को बाँट दिए...जरा सी देर में दोनों ने अपने हिस्से को एक दूसरे के हिस्से से टेढ़ी नजरों से माप लिया और बराबर होने पर अपने अपने हिस्सों पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया..
बीच बीच में बाबा की तीखी नजरों का सामना भी दीपू को करना पड़ रहा था...
"सारी छुट्टियाँ ऐसे ही बिताएगा गाँव के छोकरों की नौकरी करके...और इसे भी अपने पीछे पूरे गाँव में नचाता फिरता है... पढाई लिखाई तो दूसरे जनम के लिए बचा के रखी है तूने"...
बाबा के नुकीले शब्द और गुस्से का आदी दीपू आज बाबा के गुस्से को मिठाई की मिठास के साथ चबा रहा था...
बातचीत और गप्पों का दौर चल पड़ा..थोड़ी ही देर में बुआ ने गाँव के सभी परिवारों का हाल दीपू की माँ से ले लिया..
"ये सब राम कहानियां अब खाते खाते सुनाना" बाबा ने मां को रसोई में चलने का इशारा देते हुए कहा ।।
"हाँ चलो, देर भी बहुत हो गयी..." माँ बुआ से बोली और बच्चों को धकेलते हुए दरवाजे तक ले आई कि इतने में बुआ ने दीपू को आवाज लगाई "अरे दीपू देख क्या लाई हूँ तेरे लिए"..
बिजली की सी तेजी के साथ दीपू झट से चेहरे पे एक अजीब सी, उम्मीद से परे चमक लेके बुआ की तरफ लपक पड़ा...
To be continued...
(Alok Painuly)
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