Saturday, 2 January 2016

उम्मीद की गेंद.. (Last Part):


उम्मीद की गेंद..

(Last Part):

लगभग रोज माँ के कई बार चिल्लाने और बाबा की डांट सुन के जागने वाला दीपू आज खुद ही और दिनों से बहुत जल्दी जग गया.. 

आशंकाओं से घिरा दीपू उठते ही अपनी बॉल को देखना चाहता था.. गाँव के उपर घिरे बादल अभी तक थके नही थे.. बाहर हो रही बहुत तेज बारिश का शोर सुन दीपू आँखें मलता दरवाजे तक पंहुचा..मौसम का विकराल रूप देख दीपू का मन बैठ गया.. बारिश इतनी तेज कि सामने बस धुंध और अँधेरे के सिवा कुछ नही दिख रहा था.. 

मौसम मानो दीपू को चिढ़ा रहा था.. ये बारिश कब रुकेगी..शाम को खेल कैसे हो पायेगा..दीपू उदास मन से मौसम की बेरहमी के आगे लाचार सोचने लगा.. 

दीपू के घर के बराबर में एक छोटा सा सूखा नाला बहता था जो बस भारी बरसात होने पर ही गुलज़ार होता.. भारी बरसात होने पर किसी छुटभैया नेता के जैसे भीषण गर्जना करते हुए ये नाला गाँव के नीचे बहती नदी में जा मिलता और सूखे की हालत में खुद में जमा हुए कचरे और आसपास के घरों की समेटी हुयी गन्दगी नदी में जा धकेलता..

तेज़ बहते नाले की आवाज से दीपू जान चुका था की पूरी रात से बारिश थमी नही थी..
बस शाम तक कैसे भी करके बारिश थम जाए तो खेल शुरू हो पायेगा सोचते हुए दीपू को बॉल का ध्यान आया और वो बारिश में तेज भागते हुए दुसरे कमरे में जा पहुंचा जहाँ कल रात वो छोटी को बॉल थमा गया था..

कमरा खाली था, शायद सब लोग रसोई में होंगे.. बहुत कम रोशनी में दीपू चारों तरफ बॉल ढूंढने लगा.. बिस्तर के नीचे, कम्बल के भीतर, पलंग के चारों तरफ दीपू बॉल के होने के कयास लगाने लगा.. छोटे से संकरे कमरे में बेतरतीब फैले छोटे बड़े संदूक, लकड़ी की छोटी सी अलमारी, रजाई और गद्दों के ढेर, बिना तह किये मटमैले रंग बिरंगे कपड़ों के बीच और कमरे का हर कोना छान मारने के बाद भी दीपू को बॉल कहीं दिखाई नही दी..

घबराहट और डर से सना दीपू भागते हुए रसोई जा पहुंचा... घनघोर बारिश का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता था की 8-10 कदम की दूरी पर बने रसोई तक पहुँचने में ही दीपू पूरी तरह से भीग गया...

"अरे भीग क्यों रहा है.. छज्जे के नीचे से क्यों नही आया" गुस्से में अपने पल्लू से दीपू का सर पोछते हुए माँ बोली.. 

"माँ बॉल कहाँ है ??" माँ के पल्लू को हाथ से झट से हटाके दीपू घबराये हुए अंदाज में बोला..

"कहाँ रखी है रे तूने बॉल...ला इधर दे जल्दी" माँ कुछ बोल पाती इससे पहले दीपू छोटी को बॉल के बारे में पूछने लगा..
छोटी घबरा कर झट से माँ के पीछे छिप गयी...छोटी को भीगा हुआ और अपराधी की तरह माँ के पीछे छिपते देख दीपू की घबराहट कई गुना बढ़ गयी..

"माँ.........." लगभग रोते हुए दीपू माँ की ओर देखने लगा मानो कह रहा हो कि माँ तूने ही बॉल की जिम्मेदारी ली थी कल रात..

दीपू की सवाल भरी नजरें माँ को विचलित करने लगी..
"तेरी बॉल कहीं नही गयी बाबू...सुबह छोटी खेल रही थी तो दीवार से टकरा के बाहर क्यारी में चली गयी..अभी बारिश कम होने दे, क्यारी में दिख जाएगी" घबराये मन से माँ फिर से दीपू को दिलासा देने लगी..

दीपू ने बेबस नजरों से एक बार माँ को और गुस्से भरी नज़रों से छोटी को देखा और बारिश में तेज़ भागते हुए घर के नीचे क्यारी में कूद पड़ा..

घर के निचले हिस्से में इस छोटी सी क्यारी को भारी बारिश ने लगभग दलदल का रूप दे दिया था.. दीपू दोनों हाथों से रोते हुए क्यारी को रौंदने लगा..रसोई के दरवाजे पे माँ उसे चिल्ला चिल्ला कर वापस बुला रही थी पर बारिश की तेज़ आवाज में दीपू के कानो तक माँ का चिल्लाना  नही पहुँच पा रहा था या यूँ कहिये कि दीपू कुछ सुनना भी नही चाह रहा था..

काफी देर इधर उधर हाथ मार और क्यारी का कोना कोना उधेड़ कर भी बॉल का कुछ पता नही था...घर की बगल से बहने वाला नाला भी अब क्यारी की ऊंचाई की बराबरी कर चुका था..

कुछ बुरा होने के रूप में बॉल खोने के डर से सहमे दीपू को यकीन सा हो गया था कि नाला बॉल को साथ ले जा चुका है.. 

दीपू तेज़ रोते हुए नाले के फिसलन भरे किनारे पर हर छोटे बड़े झाड़ को हाथों, छोटी डंडियों और पत्थरों से टटोलने लगा बस इसी उम्मीद में कि किसी किनारे बॉल अटकी हुयी मिल जाये.. 

जगह जगह गिरते फिसलते हुए दीपू नाले के मुहाने पर अब नदी तक जा पहुंचा..

तेज़ चमकती बिजली और भीषण गडगडाहट के बीच पूरा गाँव आंधी भरी इस बारिश के आगे लाचार अपने अपने घरों में दुबका पड़ा था..
पहाड़ों से कई मौसमी नालों का पानी खुद में समेटे गाँव की तलहटी में बहती सर्पाकार नदी विकराल रूप ले चुकी थी.. ऐसे में दीपू घर की ओर से आते नाले के मुहाने पर खड़ा तेज़ रो रहा था..

बड़े बड़े पत्थरों से टकराती नदी की लहरें छोटे दीपू की लम्बाई से कई गुना हो चली थी.. तेज़ रोते दीपू को आंसू पोंछने के लिए जरा भी मेहनत अभी नही करनी पड़ रही थी, बारिश उसका ये काम हर गिरती बूँद के साथ किये जा रही थी..

दीपू बुआ की लायी उस सुन्दर हरी बॉल को जिससे कि वो अभी तक जरा सा भी नही खेल पाया था धुंध में उफान भरी नदी के की किनारे टटोलने लगा..

छोटे बड़े पत्थरों को जैसे तैसे लांघ, गिरते फिसलते दीपू डरावनी बारिश में हुंकार भरती नदी के किनारे किनारे गाँव से बहुत दूर सहमे हुए मन और गहरी नाउम्मीदी के साथ ढूंढने निकल पड़ा था एक "उम्मीद की गेंद".......

समाप्त...
(Alok Painuly)

Thursday, 31 December 2015

उम्मीद की गेंद.. (Part 5):


उम्मीद की गेंद..

Part 5):

दीपू चेहरे पे एक गहरी मासूम मुस्कान लिए बड़ी बड़ी आँखों से बुआ को झोला टटोलते हुए देखने लगा.. जरा सी देर में वो मिलने वाले उपहार के अनगिनत कयास लगा चुका था... कल्पना से परे और उम्मीद से कोसों दूर बुआ के हाथ में थी चमचमाते प्लास्टिक के कवर के अंदर एक बाल !!!!!

बुआ के इस अकल्पनीय तोहफे को अपने हाथ में लेते हुए दीपू की छोटी मासूम आँखें नम हो चली और धड़कने एक मदमस्त अरबी घोड़े की तरह कुलाचें भरने लगी...

झट से दीपू ने प्लास्टिक के कवर को हटा कर बाल को बड़ी नजाकत से हाथ में घूमना शुरू कर दिया... ये हरे रंग की बॉल है जबकि लाला महावीर की दुकान पर 19 रूपये की लाल रंग की बॉल मिलती है और बुआ की लायी इस बॉल पर MRP था 35 रूपये.. उस लाल रंग की बॉल से कहीं अधिक सुन्दर और महंगी बॉल बुआ मेरे लिए लायी है सोच के दीपू को बुआ किसी जादूगर की तरह लग रही थी..

COSCO ब्रांड की बॉल भारत के हर शहर, हर कस्बे और हर छोटे बड़े गांव में प्रचलित होती है, और हर हरी या लाल रंग की टेनिस की बॉल जिसका भी नाम C से शुरू होता है उतनी ही शिद्दत से COSCO की बॉल मानी जाती है जितनी शिददत से कि हर वनस्पति घी "Dalda" और हर लोहे की फाटक वाली अलमारी Godrej..

COSCO ब्रांड इस छोटे पहाड़ी गावं के बच्चे के हाथ तक अपनी बॉल तो नही पहुंचा पाया लेकिन "COSKO" लेबल लगी इस बॉल ने नाम जरूर पहुंचा दिया..

बॉल को देख छोटी बहन भी ख़ुशी से उछल पड़ी जिसे देख दीपू थोड़ा सा असहज महसूस करने लगा... वो किसी भी कीमत पर बॉल छोटी के साथ साझा नही करना चाहता था इस डर से कि छोटी बॉल को कहीं गुमा न दे..

दीपू बॉल को हाथ में लिए बस कभी बॉलिंग तो कभी बैटिंग के एक्शन किये जा रहा था..

पूरी रात दीपू ठीक से नही सो पाया, मन तो बस उतावला हुआ जा रहा था की कब सूरज सामने वाले पहाड़ के पीछे जायेगा और कब आज का खेल शुरू होगा.. बुआ को भी आज ही वापस लौटना था और उम्मीद के मुताबिक बुआ ने जाते हुए दीपू और छोटी दोनों के हिस्से का 10 रूपये का नोट दीपू के हाथ में थमा दिया.. आज दीपू को बुआ की बहुत जादा याद आ रही थी, और आती भी क्यों ना, बुआ उसे आते और जाते अनेकों खुशियां जो थमा चुकी थी..

दीपू बुआ को छोड़ने ऊपर सड़क तक गया और लौटते हुए मिले पैसों की कई सारी चीज़ें साथ लेके आया जिसे कि आज उसने पूरी ईमानदारी से छोटी के साथ बांटा.. छोटी को भी आज दीपू पे खूब प्यार आया जब दीपू ने अपने हिस्से की कई चीज़ें बड़े भाई होने के एहसास के साथ छोटी को अलग से दे दी..

शाम होने को आ गयी थी, और दीपू चौकड़ी भरता हुआ, बॉल को प्लास्टिक के कवर के साथ अपनी पैंट की जेब में घुसेड़े मैदान पर जा पहुंचा.. आज वो सबसे पहले ही मैदान पे पहुँच चुका था.. आज के खेल के लिए बच्चों के पास बॉल पहले से ही मौजूद थी तो जाहिर था दीपू किसी भी कीमत पर खेल में शामिल नही हो सकता था.. उसे आज भी बाउंड्री पर रक्षक बने रहना था...

हमेशा के जैसे आज भी खेल शुरू हुआ, बॉल बीच बीच में मैदान से बाहर नीचे नदी की तरफ जा रही थी लेकिन हमेशा के जैसे बॉल को ढूंढ लाने की दीपू की शिद्दत और मेहनत में आज करामाती बदलाव दिख रहे थे.. आज भी दीपू बॉल को ढूंढने की कोशिश कर तो रहा था मगर अपनी मेहनत को बड़े सहेज कर कंजूसी के साथ खर्च करके...

बॉल को ढूंढने का प्रयास दीपू दिखा जरूर रहा था लेकिन मन में बॉल ना मिलने की आरती और प्रार्थनाएं भी शुरू हो चुकी थी..

"अब मुश्किल मिलेगी, झाड़ के अंदर नीचे उस तरफ गयी है शायद" बार बार बोल के दीपू सभी से बॉल मिलने की उम्मीद छोड़ देने की गुहार लगाना चाह रहा था.. आखिरकार बहुत प्रयासों के बाद बॉल नही मिली लेकिन गावं के ऊपर घिर चुके काले घने बादलों की बदौलत वक़्त से पहले अँधेरा होने के कारण बच्चों को आज का खेल समाप्त करना पड़ा !!

कल से मैं भी किसी टीम में खेलूंगा, सुरेश की टीम जादा पक्की है राजेश की टीम से, तो मैं सुरेश की टीम में ही जाऊंगा और किसी भी कीमत पे अपनी बॉल को खोने नही दूंगा सोचते हुए ख़ुशी ख़ुशी दीपू घर लौट लाया..

चारों तरफ से बड़े बड़े पहाड़ों से घिरे गावं के लिए थोड़े से घने बादल भी भीषण बरसात लेके आते, जबकि आज तो बादलों के इरादे कहीं अधिक डरावने और मजबूत थे !!

भीषण गड़गड़ाहट और बीच बीच में चमचमाती बिजली के साथ तेज बारिश होने लगी.. दीपू घर पर बॉल को छोटी बहन से छुपाने के लिए अच्छी जगह तलाशने में जुट गया.. सोते समय छोटी की रो रो के की जा रही बहुत तेज जिद, माँ की गिड़गिड़ाहट और बाबा की कई डांट के आगे मजबूर दीपू ने दिल पे बड़ा सा पत्थर रख बॉल छोटी को थोड़ी देर खेलने के लिए दे दी और साथ में बहुत सख्त हिदायत दी बॉल को जल्दी सँभालने और बाहर बारिश में ना भिगाने की..

दीपू का मन लगातार बॉल पर ही था की कहीं छोटी उसे भिगा या खो ना दे....आखिर में माँ से तस्सली मिलने पर दीपू कल मैदान पर खेल के सपने लिए सो गया...


To be continued...
(Alok Painuly)

Tuesday, 29 December 2015

उम्मीद की गेंद.. (Part 4):

उम्मीद की गेंद..

(Part 4):

मेल मिलाप और राजी ख़ुशी जान लेने के बाद बुआ ने मुस्कुराते हुए मिठाई का डिब्बा माँ के हाथ में थमा दिया....
"अरे.....इसकी क्या जरुरत थी ...क्यूँ करती है ये सब फालतू के खर्चे तू..." माँ एक अनचाही नाराजगी की पोलिश वाली ख़ुशी चेहरे पे लाती हुए बोली और डिब्बा थामके रसोई की ओर चाय पानी की व्यवस्था करने चल पड़ी...

माँ के पीछे पीछे दीपू और छोटी बहन भी तेज दौड़ते हुए रसोई जा पहुंचे...डिब्बे में बंद मिठाइयों का मोह बालमन में पनप रहे लालच की बेसब्री को धीरे धीरे अब सुलगाने लगी थी...
कब डिब्बा खुलेगा और कब उनके मुह की स्वाद ग्रंथियों को काम करने का मौका मिलेगा, बस इसी जद्दोजहद में दीपू और छोटी दोनों रसोई में चाय के उबलने और प्लेट में मिठाई सजने के इंतज़ार में रेंगने लगे..

थोड़ी देर बाद दीपू और छोटी बहन एक हाथ में अपने अपने चाय के गिलास और दूसरे हाथ में लड्डू लिए बुआ वाले कमरे में आ पहुंचे...उनके पीछे पीछे माँ एक थाली में 3 गिलास और डब्बे में आई सभी प्रकार की मिठाइयों से सैंपल की तरह हर प्रकार की मिठाई का एक एक पीस प्लेट में सजा आ पहुंची...

इसे गाँव की परम्परा कहें या लाचारी पर मेहमान का स्वागत अक्सर मेहमान की लायी हुयी मिठाई, फल या बिस्कुट नमकीन से ही होता है...

दीपू और छोटी बहन में बस यही होड़ थी कि हाथ और मुह की मिठाई झट से ख़तम कर प्लेट से दूसरी मिठाई का भोग लगाया जाय....
लड्डू को झट से निगलने के चक्कर में दोनों बीच बीच में गरम चाय से अपना मुह जला कर प्लेट में पड़ी मिठाई पर अपना हक़ और नीयत जता रहे थे..
आलू के आकार की बालूशाही पर दोनों की बराबर नजर थी....बुआ के बगल में बैठने पर यक़ीनन फायदा देख दोनों बुआ के बगल में बैठ गये..
बुआ ने भी बड़ा दिल दिखाते हुए बड़े लाड़ से बालूशाही के दो लगभग बराबर हिस्से कर दोनों को बाँट दिए...जरा सी देर में दोनों ने अपने हिस्से को एक दूसरे के हिस्से से टेढ़ी नजरों से माप लिया और बराबर होने पर अपने अपने हिस्सों पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया..

बीच बीच में बाबा की तीखी नजरों का सामना भी दीपू को करना पड़ रहा था...
"सारी छुट्टियाँ ऐसे ही बिताएगा गाँव के छोकरों की नौकरी करके...और इसे भी अपने पीछे पूरे गाँव में नचाता फिरता है... पढाई लिखाई तो दूसरे जनम के लिए बचा के रखी है तूने"...
बाबा के नुकीले शब्द और गुस्से का आदी दीपू आज बाबा के गुस्से को मिठाई की मिठास के साथ चबा रहा था...

बातचीत और गप्पों का दौर चल पड़ा..थोड़ी ही देर में बुआ ने गाँव के सभी परिवारों का हाल दीपू की माँ से ले लिया..

"ये सब राम कहानियां अब खाते खाते सुनाना" बाबा ने मां को रसोई में चलने का इशारा देते हुए कहा ।।

"हाँ चलो, देर भी बहुत हो गयी..." माँ बुआ से बोली और बच्चों को धकेलते हुए दरवाजे तक ले आई कि इतने में बुआ ने दीपू को आवाज लगाई "अरे दीपू देख क्या लाई हूँ तेरे लिए"..

बिजली की सी तेजी के साथ दीपू झट से चेहरे पे एक अजीब सी, उम्मीद से परे चमक लेके बुआ की तरफ लपक पड़ा...


To be continued...
(Alok Painuly)

Sunday, 27 December 2015

उम्मीद की गेंद.. (Part 3):

उम्मीद की गेंद..

(Part 3):

आज बुआ आने वाली है ये सुनकर दीपू भागते हुए आँगन तक जा पहुंचा और नजरें गढ़ा दी ऊपर सड़क से गाँव की तरफ आते रस्ते पर..

उसकी छोटी छोटी आँखों ने बुआ के स्वागत के लिए रस्ते पर फूल बिछाने का काम शुरू कर दिया था...और बिछाता भी क्यूँ ना..बुआ उसे सबसे जादा प्यार जो करती थी..और सबसे अधिक प्यार नजर आता जब बुआ जाते हुए दीपू के हाथ में 10 रूपये का नोट थमा देती...

जो भी लाना सबको बराबर बाँटना कह के बुआ से लियेे नोट पे वैसे तो दीपू का ही पूरा अधिकार रहता जब तक कि छोटी बहन पूरे दिन रो रो कर अपने हिस्से के लिए अनशन पर ना बैठ जाती..

लाला महावीर 19 रूपये की बॉल देता है सोचते हुए दीपू बस इसी समस्या से दो चार हो रहा था की बाकी के 9 रूपये का इंतजाम वो कैसे कर पायेगा...
10 रूपये हमेशा की तरह बुआ से मिलने हैं ये वो मन ही मन सुनिश्चित कर चुका था... पूरे पैसे खुद ही रख लिए बोल के उसे 2 दिन बाद जो मार और डांट पड़ने वाली थी उसके लिए उसने अभी से मन पक्का कर दिया था...

जाते हुए मिलने वाली ख़ुशी के साथ साथ अब उम्मीद का दिया जा अटका था खाली हाथ न जाने के पारंपरिक रिवाज के अनुसार बुआ के लाये हुए सामन पे...
शायद इस बार ऑरेंज क्रीम वाला बिस्कुट बुआ लाये या फिर हलवाई भगवान सिंह की दुकान पे पिछले 20 दिनों से उसकी काउंटर की शोभा बढाती हुयी 3-4 प्रकार की पारंपरिक मिठाइयाँ खाने को मिल जाये...
एक दुसरे से चिपके हुए लड्डू और काफी हद तक सफ़ेद पड़ चुकी जलेबी की उम्मीद लगाये दीपू को माँ की रसोई में आज कोई दिलचस्पी नही थी..

गाँव के रास्तों को शहरों की गलियों तक में लगी ऊँची ऊँची स्ट्रीट लाइट नसीब नही होती,  इसीलिए दीपू रस्ते पर आने वाले हर साए को बुआ मान रहा था और साये के उसके घर से आगे बढ़ जाने पर अगले आने वाले साये में बुआ को ढूंढ़ रहा था...

दीपू सायों को टटोल ही रहा था कि आँगन से घर की ओर आते रस्ते पे दस्तक से वो चौंक गया... झट से फाटक की ओर पलटा तो देखा कि बाबा हाथ में झोला लिए लकड़ी के फाटक को बंद कर रहे थे और बुआ हाथ में एक चमकीली थैली लिए घर की ओर बढ़ रही थी..

दीपू उछल कर, प्रफुल्लित होकर "बुआ" चिल्लाते हुए जाकर बुआ से जा लिपटा....

"कैसा है मेरा बाबू" बुआ ने दीपू को नीचे बैठ कर गले से लगा लिया....

इतनी ही देर में दीपू ने चमकीली थैली को बाहर से ही अपनी आँखों से टटोलना शुरू कर दिया और थैली के चौकोर आकार से पता लगा लिया कि हलवाई भगवान सिंह की मिठाइयाँ डिब्बे में दुबकी बैठी हैं... और शक यकीन में बदल गया जब 8 रंगों वाली थैली पर 3 रंगों से "भगवान् मिष्ठान भंडार" लिखा दिखाई दे गया..

"माँ बुआ आ गयी" कहकर ख़ुशी से लबालब दीपू बुआ को लगभग घसीटता हुआ घर के अन्दर ले गया...

To be continued...
(Alok Painuly)

Saturday, 26 December 2015

उम्मीद की गेंद.. (Part 2):

उम्मीद की गेंद..

(Part 2):

अपने घर की सबसे बड़ी संतान दीपू अपने पीछे 2 छोटी बहने भी लाया था, जिनमे से एक पूरे दिन माँ की पीठ पे सवार रहती और दूसरी बहन दीपू के पीछे पीछे पूरे गांव के चक्कर लगाती..

ब्रह्माण्ड के नियमानुसार सूरज कुछ देर पहले धरती के इस छोर को अँधेरे में छोड़ दूसरे छोर को रोशन करने बढ़ चुका था...

गाँव के बाहर से गुजरने वाले रास्ते पर अभी भी हलचल थी.. दूसरे पडोसी गावों के लोग अपनी दुकानें बंद कर और मजदूरी से अपने घरों को लौटते समय रोजाना इस रस्ते पर चहल पहल बनाये रखते..

गाँव में छुटपुट चौपालों का दौर जमा हुआ था जो गरमियों के इस तथाकथित सुहावने मौसम में पूरे गाँव में जहाँ तहां चाय के खाली प्यालों और गिलासों के इर्द गिर्द प्रवासी ग्रामीणों और निवासी ग्रामीणों के बीच अलग अलग विषयों पर चर्चा के साथ शुरू होती और उबासी भरे "चलो हमको क्या" के विश्वव्यापी कथन से ख़त्म...

महिलाओं की चर्चा का मूल विषय गाँव के किसी परिवार और उसके सदस्यों के इतिहास, भूत भविष्य और वर्तमान तक ही सीमित रहते..

मिट्टी से सने कपड़े लिए दीपू आँगन तक आ पहुंचा था....

"क्यूँ रे....आज क्या लाया..कपडे फड्वा लाया है या चोट लगवा आया है"... ओखली में कुटे धान को सुप्पे में रखते हुए माँ ने दीपू से रोज की तरह पूछा और दीपू बिना कुछ बोले मिट्टी में लोटती छोटी बहन को गोदी में उठा पुचकारने लगा..

"क्यूँ सेवा में लगा रहता है तू सबकी..??? अरे तुझे क्या वो अपने साथ कभी खेलने देते हैं जो तू उनकी मजूरी करता फिरता है"...

दीपू से जादा दुख मानो उसकी माँ को हो रहा था जिसका छोटा सा दीपू रोज जी जान लगा देता महज इसलिए कि खेल चलता रहे और उसे भी कभी खेल में शामिल होने का मौका मिल जाये..

"मुझे बॉल दिला दे माँ"... उदासी सुर में दीपू बोला ये जानते हुए कि ये सुनने के बाद माँ इस बारे में बोलना बंद कर देगी....और हुआ भी ठीक ऐसा ही.."अच्छा ठीक है तू पहले जाके छोटी को अन्दर लेजा, मैं रसोई शुरू करती हूँ"...माँ बात को टालते हुए रसोई की तरफ चल दी..

दीपू छोटी बहन को गोदी में नचा नचा के अन्दर ले गया और दूसरी बहन की गोदी में थमा ध्यान रखने के निर्देश देकर माँ के पीछे रसोई जा पहुंचा..

"माँ पिताजी अभी तक क्यों नही आये ??" दीपू ने रसोई में चूल्हे के धुएं से बचने के लिए आधा झुक कर चलते हुए रसोई में माँ से पूछा...

"अरे तेरी बुआ आ रही है आज...उसे ही लिवाने गये हैं..आने वाले होंगे".... चावल की पतीली चूल्हे पे चढ़ा कर माँ ने मुस्कुराते हुए बताया जिसे सुनकर दीपू की आँखों में चमक दौड़ पड़ी.....मन खिल उठा मानो किसी प्यासे को मानसरोवर मिल गया हो...

To be continued...
(Alok Painuly)

उम्मीद की गेंद....(Part 1):



उम्मीद की गेंद..

(Part 1)

6 बार माँ की डांट खाने के बाद अनमने से उसने रोटी को गोल घुमा के चाय के गिलास में डुबोया और फटाफट आधा निवाला मुह में भरकर सरपट भागते हुए गाँव की टेढ़ी मेढ़ी गलियों में ओझिल हो गया, और कुछ देर बाद नज़र आया गाँव की तलहटी में बसे प्राइमरी स्कूल की बाउंड्री पर..
गर्मियों के वो 2 महीने एक छोटे खूबसूरत शहर से महज दो ढाई घंटे की दूरी पे बसे इस गाँव के लिए किसी त्यौहार से कम न होते थे.. गाँव से बाहर नौकरी करने वाले और शहर में अपने बच्चों को पढ़ाने की हैसियत रखने वाले परिवार रौनक लेकर गरिमयों में छुट्टियाँ बिताने गाँव आया करतेे थे.. बाहर पढने वाले बच्चों की पूरे गाँव में एक अलग ही धाक होती थी.. शहर के तौर तरीके और कसबे नुमा शहर की रंगीन और एडवांस लाइफ के किस्से गाँव में रहने वाले बच्चों के लिए मदहोश सपनों से कम न थे.. 

ऐसे ही गर्मियों की एक आवारा शाम दीपू हमेशा के जैसे स्कूल के बाउंड्री पे जा बैठा जहाँ गाँव के सभी बच्चे क्रिकेट खेलने जमा हुआ करते थे.. गाँव की क्रिकेट के अपने अलग ही नियम और कायदे हुआ करते हैं, पर एक सबसे बड़ा कायदा होता था कि खेल में वही शामिल हो पाता जिसके पास या तो ball हो या bat हो.. NRV बच्चे (non residential villagers) इस दायरे से बाहर थे.. और टीम चुनने का हक भी शहरियों को ही होता.. गाँव के जो बच्चे इनकी टीम में चुन लिए जाते वो खुद को एक विशेष सम्मान मिलने जैसी फीलिंग्स के साथ खेल में अपनी जी जान लगा दिया करते.. अगर बैट और बॉल से कुछ कमाल न कर पाए तो फील्डिंग में अपने कपड़े फडवा देते नही तो हाथ पैर तो छिलवा ही देते .. गाँव के अभागे बच्चे जो खेल में कायदों के अंतर्गत शामिल ना हो पाते वो बाउंड्री पर बैठ दर्शक दीर्घा की उत्तम परिभाषा बनकर खेल देखा करते.. ball अक्सर बाउंड्री के बाहर नीचे नदी और झाड़ियों की तरफ जाती तो ये बाउंड्री पे तैनात एक रक्षक की भूमिका निभाते हुए गेंद की तरफ ऐसे लपकते मानो अरसों से भूखे एक शेर के सामने ताजा गोश्त परोस दिया गया हो..इसी उम्मीद में की शायद मेरी इस dedication का फल मुझे खेल में शामिल होने के रूप में मिले.. दीपू भी इन्ही में से एक था जो बाउंड्री से बाहर की गेंद को लपक लेने को बेताब रहता था..उसके कपड़ों में लगे अस्तर और कुतरन इस बात की गवाही देने के लिए भरपूर थे.. और कभी कभी हाथ पैरों पे खरोंचों के निशान उसका समर्पण बयां किया करतेे.. दीपू बाहर से गेंद को लेके आता और चेहरे पर इक संतोषजनक जीत के भाव के साथ गेंद वापस फेंकते समय पूरी कोशिश करता की गेंद किसी खिलाडी के हाथ में सीधे चली जाए..गेंद इधर उधर गिरती तो वो शर्मिंदा हो उठता.. 
11 साल का दीपू शायद गीता का सार रट के ही पैदा हुआ था की करम करते जाओ फल की आस के बिना..
फल बाउंड्री के अन्दर था और उसके करम बाहर झाड़ियों में..
फील्ड से महज कुछ ही दूरी पर बहुत बड़ा एक झाड था और झाड़ के ठीक नीचे सर्पाकार सायं सायं बहती नदी जो इन मासूमों और इनके जैसे अब नौजवान हो चुके कई मासूमों की गेंदें लील चुके थे ||.. बाएं हाथ के बल्लेबाज को ये झाड़ कई बार अपनी तरफ लुभाता और गेंद खो जाने की डर से मजबूरन बाएं हाथ के लारा को भी दायें हाथ से सचिन बन के बैटिंग करनी पड़ती.. झाड में गेंद का गिरना मानो एक घोषणा कि आज का खेल ख़तम और गाँव के किसी एक घर में पापा को नई गेंद के लिए मनाने का सिलसिला जारी.. 

रोज की तरह आज भी अँधेरा होने पे बच्चों ने फील्ड में धूल उड़ा कर खेल ख़तम करने का ऐलान किया और टोली बना कर घरों की ओर चल दिए..दीपू अपनी बाउंड्री रक्षक टोली के साथ खिलाड़ी टोली का अनुगामी बन कर पीछे पीछे एक सच्चे सेवक की तरह कल की आस लगाये चल दिया..
काश कि उसके पास भी एक बैट और बॉल होती..बैट उसके पास था लेकिन छोटी कुल्हाड़ी से छिल के बनाया हुआ मुंगरा और बॉल के नाम पे पुराने अंगूठे वाले जुराब के अन्दर ढेरों कुतरन और अखबार भर के सिला हुआ एक इलिप्स.. कई बार रो रो के बॉल के लिए जिद कर चुका दीपू अब भूल चूका था कि जिद भी कम कीमती नही होती..जिद की कीमत भुला चुका दीपू जिद करना भी भूल चुका था..और इसमें उसके बाबा का सबसे अधिक योगदान था जो गाँव के उपर सड़क पर के छोटे बाजार में पेड़ के नीचे एक बड़ा सा शीशा लगाके लोगों के बाल काटने का हुनर फरमाते थे.. हुनर भी क्या गजब कि आजतक जितने लोगों के बाल न काटे थे उससे जादा कान काट चुके थे और किसी की गर्दन पर उस्तरे का कटा दिख जाए तो गौरतलब था की मनोहर के हुनर की मुहर पड़ी है...

To be continued...
(Alok Painuly)