Saturday, 2 January 2016

उम्मीद की गेंद.. (Last Part):


उम्मीद की गेंद..

(Last Part):

लगभग रोज माँ के कई बार चिल्लाने और बाबा की डांट सुन के जागने वाला दीपू आज खुद ही और दिनों से बहुत जल्दी जग गया.. 

आशंकाओं से घिरा दीपू उठते ही अपनी बॉल को देखना चाहता था.. गाँव के उपर घिरे बादल अभी तक थके नही थे.. बाहर हो रही बहुत तेज बारिश का शोर सुन दीपू आँखें मलता दरवाजे तक पंहुचा..मौसम का विकराल रूप देख दीपू का मन बैठ गया.. बारिश इतनी तेज कि सामने बस धुंध और अँधेरे के सिवा कुछ नही दिख रहा था.. 

मौसम मानो दीपू को चिढ़ा रहा था.. ये बारिश कब रुकेगी..शाम को खेल कैसे हो पायेगा..दीपू उदास मन से मौसम की बेरहमी के आगे लाचार सोचने लगा.. 

दीपू के घर के बराबर में एक छोटा सा सूखा नाला बहता था जो बस भारी बरसात होने पर ही गुलज़ार होता.. भारी बरसात होने पर किसी छुटभैया नेता के जैसे भीषण गर्जना करते हुए ये नाला गाँव के नीचे बहती नदी में जा मिलता और सूखे की हालत में खुद में जमा हुए कचरे और आसपास के घरों की समेटी हुयी गन्दगी नदी में जा धकेलता..

तेज़ बहते नाले की आवाज से दीपू जान चुका था की पूरी रात से बारिश थमी नही थी..
बस शाम तक कैसे भी करके बारिश थम जाए तो खेल शुरू हो पायेगा सोचते हुए दीपू को बॉल का ध्यान आया और वो बारिश में तेज भागते हुए दुसरे कमरे में जा पहुंचा जहाँ कल रात वो छोटी को बॉल थमा गया था..

कमरा खाली था, शायद सब लोग रसोई में होंगे.. बहुत कम रोशनी में दीपू चारों तरफ बॉल ढूंढने लगा.. बिस्तर के नीचे, कम्बल के भीतर, पलंग के चारों तरफ दीपू बॉल के होने के कयास लगाने लगा.. छोटे से संकरे कमरे में बेतरतीब फैले छोटे बड़े संदूक, लकड़ी की छोटी सी अलमारी, रजाई और गद्दों के ढेर, बिना तह किये मटमैले रंग बिरंगे कपड़ों के बीच और कमरे का हर कोना छान मारने के बाद भी दीपू को बॉल कहीं दिखाई नही दी..

घबराहट और डर से सना दीपू भागते हुए रसोई जा पहुंचा... घनघोर बारिश का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता था की 8-10 कदम की दूरी पर बने रसोई तक पहुँचने में ही दीपू पूरी तरह से भीग गया...

"अरे भीग क्यों रहा है.. छज्जे के नीचे से क्यों नही आया" गुस्से में अपने पल्लू से दीपू का सर पोछते हुए माँ बोली.. 

"माँ बॉल कहाँ है ??" माँ के पल्लू को हाथ से झट से हटाके दीपू घबराये हुए अंदाज में बोला..

"कहाँ रखी है रे तूने बॉल...ला इधर दे जल्दी" माँ कुछ बोल पाती इससे पहले दीपू छोटी को बॉल के बारे में पूछने लगा..
छोटी घबरा कर झट से माँ के पीछे छिप गयी...छोटी को भीगा हुआ और अपराधी की तरह माँ के पीछे छिपते देख दीपू की घबराहट कई गुना बढ़ गयी..

"माँ.........." लगभग रोते हुए दीपू माँ की ओर देखने लगा मानो कह रहा हो कि माँ तूने ही बॉल की जिम्मेदारी ली थी कल रात..

दीपू की सवाल भरी नजरें माँ को विचलित करने लगी..
"तेरी बॉल कहीं नही गयी बाबू...सुबह छोटी खेल रही थी तो दीवार से टकरा के बाहर क्यारी में चली गयी..अभी बारिश कम होने दे, क्यारी में दिख जाएगी" घबराये मन से माँ फिर से दीपू को दिलासा देने लगी..

दीपू ने बेबस नजरों से एक बार माँ को और गुस्से भरी नज़रों से छोटी को देखा और बारिश में तेज़ भागते हुए घर के नीचे क्यारी में कूद पड़ा..

घर के निचले हिस्से में इस छोटी सी क्यारी को भारी बारिश ने लगभग दलदल का रूप दे दिया था.. दीपू दोनों हाथों से रोते हुए क्यारी को रौंदने लगा..रसोई के दरवाजे पे माँ उसे चिल्ला चिल्ला कर वापस बुला रही थी पर बारिश की तेज़ आवाज में दीपू के कानो तक माँ का चिल्लाना  नही पहुँच पा रहा था या यूँ कहिये कि दीपू कुछ सुनना भी नही चाह रहा था..

काफी देर इधर उधर हाथ मार और क्यारी का कोना कोना उधेड़ कर भी बॉल का कुछ पता नही था...घर की बगल से बहने वाला नाला भी अब क्यारी की ऊंचाई की बराबरी कर चुका था..

कुछ बुरा होने के रूप में बॉल खोने के डर से सहमे दीपू को यकीन सा हो गया था कि नाला बॉल को साथ ले जा चुका है.. 

दीपू तेज़ रोते हुए नाले के फिसलन भरे किनारे पर हर छोटे बड़े झाड़ को हाथों, छोटी डंडियों और पत्थरों से टटोलने लगा बस इसी उम्मीद में कि किसी किनारे बॉल अटकी हुयी मिल जाये.. 

जगह जगह गिरते फिसलते हुए दीपू नाले के मुहाने पर अब नदी तक जा पहुंचा..

तेज़ चमकती बिजली और भीषण गडगडाहट के बीच पूरा गाँव आंधी भरी इस बारिश के आगे लाचार अपने अपने घरों में दुबका पड़ा था..
पहाड़ों से कई मौसमी नालों का पानी खुद में समेटे गाँव की तलहटी में बहती सर्पाकार नदी विकराल रूप ले चुकी थी.. ऐसे में दीपू घर की ओर से आते नाले के मुहाने पर खड़ा तेज़ रो रहा था..

बड़े बड़े पत्थरों से टकराती नदी की लहरें छोटे दीपू की लम्बाई से कई गुना हो चली थी.. तेज़ रोते दीपू को आंसू पोंछने के लिए जरा भी मेहनत अभी नही करनी पड़ रही थी, बारिश उसका ये काम हर गिरती बूँद के साथ किये जा रही थी..

दीपू बुआ की लायी उस सुन्दर हरी बॉल को जिससे कि वो अभी तक जरा सा भी नही खेल पाया था धुंध में उफान भरी नदी के की किनारे टटोलने लगा..

छोटे बड़े पत्थरों को जैसे तैसे लांघ, गिरते फिसलते दीपू डरावनी बारिश में हुंकार भरती नदी के किनारे किनारे गाँव से बहुत दूर सहमे हुए मन और गहरी नाउम्मीदी के साथ ढूंढने निकल पड़ा था एक "उम्मीद की गेंद".......

समाप्त...
(Alok Painuly)

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